अनुवाद

Friday 17 June 2011

ये नज़्मे मेरी नहीं,.......

ये नज़्मे मेरी नहीं,
सच कहा तुमने......
किसी और की होगी...हो सकती है,
जब ये थी,तब मैं नहीं था,
आज तुम हो पर वो नहीं......
जिनकी ल्फ़्जों को जोड़कर
मै तुम्हारी तहरीर लिखता हूँ,
जिनकी आंखों के सपनों में
तुम्हें देखना और सोचना चाहता हूँ,
लफ़्ज़ वही है ....अरमान वही है ...
खुदा की मुक़द्दस शाम वही है ....
जहन  में गूँजती पुकार भी वही
पर आज.......मुमकिन नहीं ...
एक शोर सन्नाटे की तरह मन में .....
दबी पांव बैठी है ....पर मैं नहीं ...
राह वही....... राही वही.......
कायनात की सब्ज़-बहार वही
ओ! रेत पर बनी तस्वीर....... 
बस इतनी सी  एहसां कर दो,
किसी और की दास्ताँ में
तुम मेरे दिल की बात समझ लो!!!

Sunday 12 June 2011

अरण्य रोदन

निकलता हूँ घर से जब मैं
राहों में भटकते-पहुँचते कहीं
और मिल जाता हूँ , अपने में छिपे,
उलझन में फंसे एक इंसान से,
जिसे खींच रहा है इक और इंसान अपने कंधो की  भार से
अपने साँसों को चलाए रखने के लिए?
 उम्र से अधिक जकड़े जर्जर शरीर को
कुछ दिन, कुछ और साल तक बचाए रखने के लिए?
ताकि उस जैसे और शरीर आगे बने रहे.....?.
उसके भी घर के खप्पर  की फाँको से धुआँ निकले,
ताकि लोग उसके घर को मुर्दों  का घर ना समझें...
पर रोकता नहीं मैं उसे कभी....न ही मेरी आँखें झेप जाती है..
खींचा जाता हूँ  हर रोज  मैं  उसके  कंधो के सहारे
अपने नजरों को इधर-उधर लगाए अनायास
उन सड़को पर जिन्हे  मैं  रोज देखता हूँ बेमतलब
विज्ञापनों में दिखाये छूट का विश्लेषण करते हुए
तो कभी हाथ जोड़े हमारी भलाई का दावा करने वालों को
और...चलते चलते लगता है जैसे सारे लोग घूर रहे है मुझे
लेकिन मैंने खुद को समेट  रक्खा है,
कछुए को अपना आदर्श मान  रक्खा है-
फिर भी ढूँढता  रहता हूँ कोई न कोई बहाना, कुछ सोचते हुए 
 पूंछता हूँ क्या सही है इस तरह किसी के कंधो पर खींचा जाना ?
स्नायुतंत्र के घोर मंथन से  मैं यही  निष्कर्ष पाता हूँ -
"मेरा इस तरह खींचा जाना" - जरूरी है उस आदमी के लिए
भूख से टूटती उन सन्नाटों के लिए
जो उसके दुनिया में छायी है ...
यादृच्छिक काली रेखाओं की परछाई
जिसे उसने अपने जनम के साथ पाई है,
उसके कंधो ने  जो शायद मुझ से  पहले
रक्त-वसा- हड्डी के बड़े-बड़े  बोझों को  ढोया होगा
पिछली रात  पानी के साथ निगले निवाले को कई बार पचाया होगा 
मेरी तुच्छ काया  उसे शायद हल्की लगे!!
अपने ही जकड़े मांसपेशियो की गठरी  उसे कुछ ढीला लगे !
हाँ , यह मेरा अरण्य रोदन ही है, क्या करूँ ? ......
कुछ नहीं कर पाऊँगा ऐसे-वैसो के लिए....
अपने दोस्तो की तरह भाड़े के पैसों की वचत से
मुझे भी जीवन रक्षा की एक पॉलिसी मिल जाएगी....
तब घर से  पैदल चलने की बात मे मेरी "फिटनेस की  नुस्खा"
आप सबकों खूब  पसंद आएगी|

Tuesday 7 June 2011

मैं रहूँगा....पर ये जिश्म नहीं...

मैं रहूँगा....पर ये जिश्म नहीं
अगली बार दूसरे लिबास में उसे खोजता फिरूँगा....
सिलसिला तो जारी रहेगा ;
ना जाने कब से.....और  कबतक...
मेरी रूह  अधूरेपन के शाप से भटकता रहेगा;
आख़िर कबतक ??मेरे ख़्वाहिश!
किश्तों में पूरे होते सपनों का हश्र-
ऐसा ही होता है...गूँजती है विफरती हुई आवाज़े 
उन गलियों में, आज भी |







.