जब नहीं होती हो तुम घर में
होती नहीं मेरी शाम
घर आता हूँ,लौटता नहीं...
थकता नहीं मैं;
चाय की चुस्की में भी
कोई जायका नहीं होता है !
देखता हूँ घर की दीवारों को अजनबी की तरह
मानो कभी देखा नहीं था पहले
तस्वीरें बोलती नजर आती है...
खामोश रहकर भी;
दीवारों के रंगों में तुम्हारी सूझ समझ आने लगती है ;
हर सामान को छूकर
महसूस कर लेना चाहता है
तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श,ये मन !
आंखे मानो किसी अन्वेषक से चश्में उधार ली हो
पढ़ता हूँ कोई भी कविता बार-बार
जो कभी पढ़ी नहीं थी अरुचि से
आज भी खाली हाथ लौटा
जैसे कुछ भी नहीं देने को था उनमे मुझे
और पढ़ता हूँ अपनी प्रिय कविता बार-बार
और हर बार कवि कुछ नया कह जाता है....
जो कभी न कह पाया था ,तुम्हारे रहते
या जो पहले कभी नही सुन पाया था मैं...
तुम्हारे रहते !
आंखे लगाए उन पन्नों पर रुक जाता हूँ
तुम निकल आती हो उस कविता से बाहर
और कहती हो "खाने का समय हो चला,उठो भी";
और थामकर हाथ मेरा अपनी बाहों में
ले जाती हो पकड़ कर रसोईघर तक
मैं चला जाता हूँ खामोश तुम्हारे साथ !
फ्रिज में रखी तुम्हारी बनाई हुई भोजन
जिसे बिना गरम करे खाया तो
तुम नाराज हो जाओगी !
पर मुझे ही गरम करना पड़ेगा
आज गरम खाने की चाहत गायब है....!
पर,
कवि की कही नई बात पर बहस....?
मेरी कविताओं का मज़ाक .....
सपनों को कहाँ से लाऊँगा ...
तुम्हारी वो मख़मली चादर
जिस पर फिसलता था, मैं
वर्फ की तरह और भींगा जाता था
उसे पानी बनकर ......
--------------
रात कैसे कटेगी?
..........
सुबह कैसे होगी?
--------------
...............
दफ़्तर भी जाना होगा
तुम्हारे तैयारी के वगैर
कुछ न कुछ तो छुट जाएगी ही
तब दफ़्तर में फोन की रिसीवर को कोसूंगा
तुम्हारे ...इस तरह चले जाने पर;
जब नहीं होती हो तुम घर में;
कितना जान पाता हूँ खुद को तुम्हारे वगैर.....
होती नहीं मेरी शाम
घर आता हूँ,लौटता नहीं...
थकता नहीं मैं;
चाय की चुस्की में भी
कोई जायका नहीं होता है !
देखता हूँ घर की दीवारों को अजनबी की तरह
मानो कभी देखा नहीं था पहले
तस्वीरें बोलती नजर आती है...
खामोश रहकर भी;
दीवारों के रंगों में तुम्हारी सूझ समझ आने लगती है ;
हर सामान को छूकर
महसूस कर लेना चाहता है
तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श,ये मन !
आंखे मानो किसी अन्वेषक से चश्में उधार ली हो
पढ़ता हूँ कोई भी कविता बार-बार
जो कभी पढ़ी नहीं थी अरुचि से
आज भी खाली हाथ लौटा
जैसे कुछ भी नहीं देने को था उनमे मुझे
और पढ़ता हूँ अपनी प्रिय कविता बार-बार
और हर बार कवि कुछ नया कह जाता है....
जो कभी न कह पाया था ,तुम्हारे रहते
या जो पहले कभी नही सुन पाया था मैं...
तुम्हारे रहते !
आंखे लगाए उन पन्नों पर रुक जाता हूँ
तुम निकल आती हो उस कविता से बाहर
और कहती हो "खाने का समय हो चला,उठो भी";
और थामकर हाथ मेरा अपनी बाहों में
ले जाती हो पकड़ कर रसोईघर तक
मैं चला जाता हूँ खामोश तुम्हारे साथ !
फ्रिज में रखी तुम्हारी बनाई हुई भोजन
जिसे बिना गरम करे खाया तो
तुम नाराज हो जाओगी !
पर मुझे ही गरम करना पड़ेगा
आज गरम खाने की चाहत गायब है....!
पर,
कवि की कही नई बात पर बहस....?
मेरी कविताओं का मज़ाक .....
सपनों को कहाँ से लाऊँगा ...
तुम्हारी वो मख़मली चादर
जिस पर फिसलता था, मैं
वर्फ की तरह और भींगा जाता था
उसे पानी बनकर ......
--------------
रात कैसे कटेगी?
..........
सुबह कैसे होगी?
--------------
...............
दफ़्तर भी जाना होगा
तुम्हारे तैयारी के वगैर
कुछ न कुछ तो छुट जाएगी ही
तब दफ़्तर में फोन की रिसीवर को कोसूंगा
तुम्हारे ...इस तरह चले जाने पर;
जब नहीं होती हो तुम घर में;
कितना जान पाता हूँ खुद को तुम्हारे वगैर.....