अनुवाद

Tuesday, 27 December 2011

हे बुद्ध !

हे बुद्ध !
तुम ईश्वर को जान पाये थे ?
या थे अंजान उस चमत्कार से
जिससे चार-आठ हाथ उग आते थे
मिटाने दुनिया का दु:ख-दर्द
लिखने हमारा भाग्य!
और रहता था सदा मुस्कान
जिससे उन चेहरों पर हर हाल में .....
तुमने सरसों के दाने से समझाया था
जीवन!
दु:ख !
मृत्यु !
यहाँ लाखों-करोड़ों कविताएँ विखरी पड़ी है
उसी सरसों के दाने की तरह
फिर भी जीवन का अर्थ समझ न आया अबतक .....
सरसों के दानो -सा विखरा रहेगा मानव आख़िर कबतक ?

हे बुद्ध !
फिर कभी जब भी हो निर्वासन उस प्रदेश से
जहाँ चले गए थे तुम अमरता की तलाश में
लौट आना इसी भूमि पर उन सरसों के दाने
दो नहीं, चार..... आठ ...दस हाथों में लेकर
हमें जीवन का नया अर्थ समझाने .......
हमें जीवन की कविता समझाने ......
हे बुद्ध!
अब नहीं दिखते पीले रंग खेतों में दिखते है
वहाँ इस युग के देवताओं के आलीशान भवन....
दिखता है पीलापन उनके चेहरों पर
जिन्हे लगाया गया है रात-दिन
उन भवनों को चमकाने के काम पर
हे बुद्ध !
लौट आना इसी भूमि पर
हमें जीवन का नया अर्थ समझाने ......
हमें जीवन की कविता समझाने ......

Friday, 2 December 2011

माँ


माँ की आँचल में बंधी होती थी
खुशियों की फुलझरियाँ
कभी लाजेंस ,कभी आइसक्रीम
और कभी रोते चेहरे पर ममता की स्पर्श !

हाँ, माँ याद आती है तुम्हारी बातें हर सुबह
और ढूंढ रहा हूँ बरबस तुम्हें तुम्हारी ही तस्वीरों में
इस शहर ने पिता के कंधे तो दिए है मुझे......
पर माँ कहीं खो रही है !

कल शायद ही मेरी भी तस्वीर
किसी चार दीवारी पर टंगी मिले
और 'माँ' सिर्फ कविता या ईश्वर की
प्रार्थना में सुनने को मिले........
हाँ, माँ याद आती है तुम्हारी बातें हर सुबह ...

Saturday, 10 September 2011

जब नहीं होती हो तुम घर में....

जब नहीं होती हो तुम घर में
होती नहीं मेरी शाम
घर आता हूँ,लौटता नहीं...
थकता नहीं मैं;
चाय की चुस्की में भी
कोई जायका नहीं होता है !

देखता हूँ घर की दीवारों को अजनबी की तरह
मानो कभी देखा नहीं था पहले
तस्वीरें बोलती नजर आती है...
खामोश रहकर भी;
दीवारों के रंगों में तुम्हारी सूझ समझ आने लगती है ;
हर सामान को छूकर
महसूस कर लेना चाहता है
तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श,ये मन !

आंखे मानो किसी अन्वेषक से चश्में उधार ली हो
पढ़ता हूँ कोई भी कविता बार-बार
जो कभी पढ़ी नहीं थी अरुचि से
आज भी खाली हाथ लौटा
जैसे कुछ भी नहीं देने को था उनमे मुझे
और पढ़ता हूँ अपनी प्रिय कविता बार-बार
और हर बार कवि कुछ नया कह जाता है....
जो कभी न कह पाया था ,तुम्हारे रहते
या जो पहले कभी नही सुन पाया था मैं...
तुम्हारे रहते !

आंखे लगाए उन पन्नों पर रुक जाता हूँ
तुम निकल आती हो उस कविता से बाहर
और कहती हो "खाने का समय हो चला,उठो भी";
और थामकर हाथ मेरा अपनी बाहों में
ले जाती हो पकड़ कर रसोईघर तक
मैं चला जाता हूँ  खामोश तुम्हारे साथ !

फ्रिज में रखी तुम्हारी बनाई हुई भोजन
जिसे बिना गरम करे खाया तो
तुम नाराज हो जाओगी !
पर मुझे ही गरम करना पड़ेगा
आज गरम खाने की चाहत गायब है....!

पर,
कवि की कही नई बात पर बहस....?
मेरी कविताओं का मज़ाक .....
सपनों को कहाँ से लाऊँगा ...
तुम्हारी वो मख़मली चादर
जिस पर फिसलता था, मैं
वर्फ की तरह और भींगा जाता था
उसे पानी बनकर ......
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रात कैसे कटेगी?
..........
सुबह कैसे होगी?

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...............
दफ़्तर भी जाना होगा
तुम्हारे तैयारी के वगैर
कुछ न कुछ तो छुट जाएगी ही
तब दफ़्तर में फोन की रिसीवर को कोसूंगा
तुम्हारे  ...इस तरह चले जाने पर;
जब नहीं होती हो तुम घर में;
कितना जान पाता हूँ खुद को तुम्हारे वगैर.....

Thursday, 8 September 2011

कल ईश्वर मेरे सम्मुख पधारे....



कल ईश्वर  मेरे सम्मुख पधारे;
मुझ से कहा -
"तुम अपने पुजारी से सवाल करो ;
उसकी हर बात को  नकारते जाओ,
शास्त्रों की बातों पर हंसो,
कर्मकांड का विरोध करो.....
उसके विद्वता को ;
भक्ति को चुनौती दो,
निडर होकर !

यदि वह तुम्हारी सब सुने और मुसकाए .....
उसके शांत,मंद मुस्कान भरे चेहरे पर मेरी परछाई देखना;
चरण पकड़  क्षमा याचना कर  लेना,
मना लेना उसे हर हाल में तुम !
वह तुम्हें क्षमा कर देंगे |

तुम मुक्त हो जाओगे मेरे चंगुल से !

और यदि  क्रोध आए,
तुम्हारी धृष्टता पर
तुम्हें कोसे ....
डर  दिखाए किसी प्रलय का ...
नाश  का.....वह!

मेरी पूजा कभी उससे न करवाना;
तुमसे मैं रुष्ट होऊँगा, शाप दे दूंगा तुम्हें ..
कभी न  मुक्त होगे मेरे चंगुल से !


डर से काँप रहा था मैं,सुबह देर हो गई दफ्तर के लिए !!!

दिन भर सोचता रहा...
कौन-सी कविता पढ़ी थी मैंने कल......