अनुवाद

Thursday, 10 May 2012

पुनर्जन्म

पुनर्जन्म
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मैं दोबारा
इस धरती पर
आने की कर रहा हूँ तैयारी
मैंने सहेज लिए है अपनी पसंद की सारी चीजें
त्याग  दिया है वह सबकुछ जिसपर
किसी न किसी ने किया था कभी दावा


तुम कुछ देना नहीं चाहोगे ?

दोबारा इस धरती को
नहीं जीना चाहोगे?
जिस तरह जीने की सोचा करते थे
अक्सर घिर कर अंधेरों में


चलो जो देना हो जल्द दे दो
मैं वादा करता हूँ तुम्हारी दी हुई चीज
सौंप दूंगा इस धरती को लौटकर
और  कह दूंगा तुम्हारा नाम उसके कानों में .....

Monday, 2 April 2012

कविगुरु रवींद्र नाथ


कविगुरु रवींद्र नाथ ठाकुर की एक कविता का अनुवाद

         " बिदाई

क्षमा करो,धीरज धरो-  हो सुंदरत्तम
विदाई के क्षण|
मृत्यु नहीं,ध्वंस नहीं न ही विच्छेद का भय ,
केवल हो समापन |

स्मृति में केवल सुख रहे, वेदना में रहे गीत,
नाव हो तीर,
श्रांत हो खेल, हो शांत वासनाएँ
नभ हो नीड़||

समय के नम्र हाथ दे थपकियाँ मेरे माथे पर
आँखों में लाए नींद-
हृदय के कपाटों में खिल उठे चुपचाप
निशा कुसुम |

आरती के शंखनादों में हो सम्पूर्ण परिणाम
हँसी नहीं, अश्रु नहीं उदार वैराग्यमय
हो परम विश्राम ||

प्रात: जो खगकुल गए थे विचरने नभ
रुक जाएँ अभी |
प्रात: जो कलिकुल जागे थे खिलखिलाकर
मूँद लें नयन |
प्रात: जो वायुदल घूम रहे थे हो चंचल
ठहर जाएँ ...जाएँ ठहर|
नीरवता में हो उदय असीम नक्षत्रलोक
परमनिर्वाक ||

हे महासुन्दर शेष , हे विदाई अनिमेष
हे सौम्य विषाद ,
क्षण भर तो ठहरों पोंछकर नयननीर
दो आशीर्वाद|
क्षण भर तो ठहरों छूँ लूँ तुम्हारे चरण
तब यात्रापथ में-
धरूँ निष्कम्प प्रदीप नि:शब्द करूँ आरती
इस निस्तब्ध जगत में||




Tuesday, 27 December 2011

हे बुद्ध !

हे बुद्ध !
तुम ईश्वर को जान पाये थे ?
या थे अंजान उस चमत्कार से
जिससे चार-आठ हाथ उग आते थे
मिटाने दुनिया का दु:ख-दर्द
लिखने हमारा भाग्य!
और रहता था सदा मुस्कान
जिससे उन चेहरों पर हर हाल में .....
तुमने सरसों के दाने से समझाया था
जीवन!
दु:ख !
मृत्यु !
यहाँ लाखों-करोड़ों कविताएँ विखरी पड़ी है
उसी सरसों के दाने की तरह
फिर भी जीवन का अर्थ समझ न आया अबतक .....
सरसों के दानो -सा विखरा रहेगा मानव आख़िर कबतक ?

हे बुद्ध !
फिर कभी जब भी हो निर्वासन उस प्रदेश से
जहाँ चले गए थे तुम अमरता की तलाश में
लौट आना इसी भूमि पर उन सरसों के दाने
दो नहीं, चार..... आठ ...दस हाथों में लेकर
हमें जीवन का नया अर्थ समझाने .......
हमें जीवन की कविता समझाने ......
हे बुद्ध!
अब नहीं दिखते पीले रंग खेतों में दिखते है
वहाँ इस युग के देवताओं के आलीशान भवन....
दिखता है पीलापन उनके चेहरों पर
जिन्हे लगाया गया है रात-दिन
उन भवनों को चमकाने के काम पर
हे बुद्ध !
लौट आना इसी भूमि पर
हमें जीवन का नया अर्थ समझाने ......
हमें जीवन की कविता समझाने ......

Friday, 2 December 2011

माँ


माँ की आँचल में बंधी होती थी
खुशियों की फुलझरियाँ
कभी लाजेंस ,कभी आइसक्रीम
और कभी रोते चेहरे पर ममता की स्पर्श !

हाँ, माँ याद आती है तुम्हारी बातें हर सुबह
और ढूंढ रहा हूँ बरबस तुम्हें तुम्हारी ही तस्वीरों में
इस शहर ने पिता के कंधे तो दिए है मुझे......
पर माँ कहीं खो रही है !

कल शायद ही मेरी भी तस्वीर
किसी चार दीवारी पर टंगी मिले
और 'माँ' सिर्फ कविता या ईश्वर की
प्रार्थना में सुनने को मिले........
हाँ, माँ याद आती है तुम्हारी बातें हर सुबह ...